संसद में सरकार के पहरुए वंदे मातरम पर राजनीति करते रहे नेहरु को दोषी ठहराते रहे लेकिन एक के मुख से वंदे मातरम से जुड़े एक बेहद महत्वपूर्ण बिंदु संन्यासी विद्रोह पर चर्चा करने की जरुरत महसूस नहीं की । अगर इस पर चर्चा होती तो संन्यासी विद्रोह का वंदे मातरम गीत और आनंदमठ से संबंधित पूरे विवाद का समाधान कर देता है। बंकिम चंद्र जी ने 1875 में जो वंदे मातरम गीत लिखा था वो पूरा का पूरा राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया गया है। 1875 में उन्होने 2 स्टैंजा ही लिखे थे और उनमें मातृभूमि की ही वंदना है। 1882 में जब बंकिम चंद्र जी ने आनंदमठ ग्रंथ लिखा तो उसमें 1875 वाले 2 स्टैंजा में चार और जोड़ दिए, उन 4 स्टैंजा में भारत माता की कल्पना देवी दुर्गा की तरह की गई है। ऐसा क्यों किया ये जानने के लिए आपको ये समझना पड़ेगा कि आनंद मठ में है क्या ? आनंदमठ संन्यासी विद्रोह पर आधारित है जो 1760 के बाद बंगाल के कई क्षेत्रों में हुआ था।स्वाभाविक है जब कथानक के नायक संन्यासी होंगे तो वो देवी की वंदना करेंगे ही. इसलिए जब बंकिम चंद्र जी ने पहले से लिखे रखे वंदे मातरम गीत के दो स्टैंजा आनंदमठ में जोड़े तो ग्रंथ की भावनाओं के और अनुरूप बनाने के लिए उसमें भारत माता की देवी के रूप में वंदना के चार स्टैंजा और जोड़ दिए। अब बंकिम चंद्र जी को क्या पता था आजादी के 75 से ज्यादा साल बीत जाने के बाद ऐसे लोग आएंगे जो देश के पहले प्रधानमंत्री को दोषी ठहराने के लिए उन अतिरिक्त स्टैंजा का प्रयोग करेंगे. अब बात इसकी कि क्या नेहरू जी ने पूरा वंदे मातरम गीत राष्ट्रगीत बनने से रोक दिया? इसका उत्तर है सिर्फ नेहरू ने नहीं। वंदे मातरम का कितना हिस्सा राष्ट्रगीत के रूप में लिया जाएगा इसमें सबसे बड़ी भूमिका गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की थी। वो ही इस विषय के सबसे बड़े विद्वान थे, इसलिए उनके सुझाव पर ही वही दो स्टैंजा राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किए गए जो बंकिम चंद्र जी ने 1875 में लिखे थे। संन्यासी विद्रोह पर आधारित आनंदमठ पुस्तक को और ज्यादा जीवंत बनाने के लिए लिखे गए अतिरिक्त स्टैंजा राष्ट्रगीत में नहीं जोड़े गए। इसके अलावा उन पंक्तियों पर सांप्रदायिक राजनीति भी जिन्ना और मुस्लिम लीग कर रहे थे। अब गुरुदेव रवीद्र नाथ टैगोर जी से ज्यादा विद्वान लोग अमृतकालीन भाजपा में बैठे हों तो बताएं। और महत्वूर्ण बात..जिस उप समिति ने टैगोर जी की राय पर शुरु के दो स्टैंजा को ही राष्ट्रगीत में शामिल किया उस उपसमिति के अध्यक्ष नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे, सदस्य नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, डा राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, आचार्य नरेन्द्र देव और जमनालाल बजाज भी थे। चलिए अगर नेहरू को ये दोषी मानते हैं तो क्या इनकी हैसियत है कि ये पटेल जी को भी दोषी बोलें ? क्या इनमें इतना साहस है कि ये सुभाष चंद्र बोस पर तुष्टिकरण का आरोप लगाएं? और भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात..नेताजी सुभाष की अध्यक्षता वाली जिस उपसमिति की सिफारिश को कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने भी मान लिया था उसी बात को संविधान सभा ने स्वीकार किया। संविधान सभा ने भी वंदे मातरम के दो स्टैंजा को ही राष्ट्रगीत माना। तो क्या नेहरू को गुनहगार बताने वालों की इतनी हिम्म्त है कि बाबा साहेब अम्बेडकर को भी दोषी बता सकें ? डा. राजेन्द्र प्रसाद को दोषी ठहरा सकें ? नहीं है हिम्मत! क्योंकि साहस सत्य की साधना से आता है, अर्धसत्य का प्रोपगंडा करने से नैतिक साहस नहीं आता। और अब आखिरी बात…वंदे मातरम हो या पूरा स्वतंत्रता आंदोलन, उसमें सबसे बड़ी भूमिका कांग्रेस की है ये हर उस व्यक्ति को पता है जिसने इतिहास पढ़ा है। सारा प्रपंच उन लोगों के लिए रचा जाता है जिन्होंने इतिहास नहीं पढ़ा है। बात बात में इतिहास में कूदने वाले वर्तमान को छलने के अलावा कुछ नहीं करते। स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों ने कभी ये नहीं सोचा होगा कि उनकी तपस्या के नाम पर एक दिन ये सब होगा। आज की कांग्रेस की मेरिट/ डिमेरिट के आधार पर उसकी आलोचना होनी चाहिए और आज की भाजपा के कार्यों के आधार पर उसकी. इतिहास में नायक और खलनायक खोज ही क्यों रहे हैं ? उस व्यक्ति के खिलाफ दुष्प्रचार अभियान चलाना जिसने दशक से ज्यादा जेल में बिताया, आधुनिक भारत के निर्माण की नीव खड़ी की बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को सिर्फ पढ़ा ही नहीं उसकी आत्मा को समझा है वो अर्धसत्य के इस पाप को स्वीकार नहीं कर सकता।
वंदे मातरम, भारत माता की जय।

