अनिल शर्मा की फेसबुक वॉल से साभार
दीपावली का मौसम है — रोशनी, मिठास और दिखावे का भी मौसम। लेकिन इस बार बाजार में सिर्फ दीये, पटाखे और मिठाइयां ही नहीं, बल्कि एक नई कौम भी उतर आई है — *‘दिवालिया पत्रकारों’* की कौम। ये वो चेहरे हैं जो पूरे साल गायब रहते हैं, लेकिन जैसे ही कोई त्यौहार या बड़ा आयोजन आता है, हाथ में माइक, गले में 🆔 कार्ड, और जेब में विजिटिंग कार्ड लेकर ऐसे उतरते हैं मानो पूरे सिस्टम को चलाने की जिम्मेदारी इन्हीं के कंधों पर हो।
इनका आत्मविश्वास देखिए — सालों से पत्रकारिता में चप्पल घिस रहे असली पत्रकार जहां सवाल पूछने से पहले दस बार सोचते हैं, वहीं ये नए ‘मीडिया योद्धा’ बिना हिचक किसी से भी उलझ जाते हैं। इन्हें न किसी नेता का डर, न किसी अफसर की परवाह। कैमरे के सामने बस खुद को “रिपोर्टर” बताना होता है और फेसबुक-यूट्यूब इनका ‘प्रेस क्लब’ बन जाता है।
सोशल मीडिया ने लोकतंत्र को आवाज दी — ये सच है। लेकिन इसी सोशल मीडिया ने पत्रकारिता को भी इतना आसान बना दिया कि अब हर दूसरा मोबाइल पकड़े व्यक्ति खुद को “न्यूज़ चैनल” कहता है। न जानकारी, न समझ, न आचार संहिता — बस व्यूज़ और वायरलिटी की भूख। और दुखद बात ये है कि इनकी वजह से असली मेहनती पत्रकारों की पहचान, मेहनत और साख पर भी धूल जमने लगी है।
अब सवाल ये नहीं कि ये दिवालिया पत्रकार कौन हैं। सवाल ये है कि **इनकी इस हालत का जिम्मेदार कौन है?** जवाब बड़ा साफ़ है — *हम खुद।* क्योंकि हमने असली पत्रकारिता को प्रोत्साहन देना बंद कर दिया है, हमने सच्ची खबरों से ज्यादा मनोरंजन और नाटकीयता को तवज्जो दी है। और जब दर्शक ही सच्चाई से मुंह मोड़ ले, तो झूठ बोलने वालों की दुकानें तो चलेंगी ही।
इस दीपावली पर जरूरत है कि हम *रोशनी सिर्फ घरों में नहीं, पत्रकारिता के पेशे में भी करें।* सच और दिखावे के बीच फर्क समझें, और असली पत्रकारों का सम्मान लौटाएं — ताकि अगली दिवाली पर “दिवालिया पत्रकार” नहीं, *“जिम्मेदार पत्रकार”* चर्चा में हो

